चलता चलता थक सा जाता हूँ ।

चलता चलता थक सा जाता हूँ, 

साँसों की उलझन में  उलझ  सा जाता हूँ।

हर रोज है नयी  मंजिल  को पाना, 

हर रोज है सूरज की  किरणों  से उठना, 

हर रोज है शाम की  गोद  में  छिपना,

चलता चलता थक सा जाता हूँ,

साँसों की उलझन में  उलझ सा  जाता हूँ।

कोइ अपना ही कभी  रूठ  जाता  है, 

मैं अपनों से  कभी  रूठ  जाता हूँ,

चलता चलता थक सा जाता हूँ,

साँसों की उलझन में  उलझ सा  जाता हूँ ।

साँसों की कड़ियाँ तो  साँसें जोड़  जाती हैं,

पर मेरी कड़ियाँ  कोइ न जोड़  जाता है,

कोइ आता है दो दिन, कोइ तीन दिन  आता है,

पर चौथे दिन सब छोड़  चले  जाते हैं,

चलता चलता थक सा जाता हूँ, 

साँसों की उलझन में  उलझ सा  जाता हूँ ।।

                      . . . (शुभम सिंह )

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